Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



138. मागध स्कन्धावार -निवेश : वैशाली की नगरवधू

वास्तुशिल्पियों ने वार्धकिजनों के सहयोग से मौहूर्तिकों से अनुशासित हो , आर्य भद्रिक के आदेश और विकल्प से पाटलिग्राम के पूर्वी स्कन्ध पर, गंगा और मिही-संगम के ठीक सम्मुख तट से तनिक हटकर , लम्बे परिमाण में गोलाकार मागध स्कन्धावार-निवेश स्थापित किया । उसमें चार द्वार, छ : मार्ग, नौ संस्थान बनाए गए। स्कन्धावार चिरस्थाई था , इस विचार से खाई, परकोटा और कुछ अटारियां भी बनाई गईं तथा एक मुख्य द्वार का निर्माण भी किया गया ।

स्कन्धावार के मध्य भाग में उत्तर की ओर नौवें भाग में सौ धनुष लम्बा तथा इससे आधा चौड़ा राजगृह बनाया गया । उसके पश्चिम की ओर उसके आधे भाग में अन्त: पुर निर्मित किया गया । अन्त : पुर की रक्षक सैन्य का स्थान उसके निकट ही रखा गया । राजगृह के सम्मुख राज उपस्थान गृह था । जहां बैठकर सम्राट् सेनापति और अभिलषित जनों से मिलते थे । राजगृह से दाहिनी ओर कोष- शासनकरण, अक्ष- पटल , कार्यकरण निर्मित हुआ । बाईं ओर सम्राट् के गज , रथ , अश्व के लिए स्थान बनाया गया । राजगृह के चारों ओर कुछ अन्तर पर चार बाड़ें लगाई गईं। पहली बाड़ शकटों की , दुसरी कांटेदार वृक्षों की शाखा की , तीसरी दृढ़ लकड़ी के स्तम्भों की , चौथी पक्की ईंटों की चुनी हुई थी । प्रत्येक बाड़ में परस्पर सौ - सौ धनुष का अन्तर था । पहली बाड़ के भीतर सामने की ओर मन्त्रियों और पुरोहित के स्थान थे। दाहिनी ओर कोष्ठागार, महानस और बाईं ओर कूप्यागार और आयुधागार था । दूसरी बाड़ के भीतर मौलभूत आदि सेनाओं के उपनिवेश थे तथा गज , रथ और सेनापति के स्थान थे। तीसरे घेरे में हाथी , श्रेणीबल तथा प्रशास्ता का आवास था । चौथे घेरे में विष्टि , नायक तथा स्वपुरुषाधिष्ठित मित्रामित्र सेना एवं आटविक सेना थी । यहीं व्यापारियों , वणिकों, वेश्याओं के आवास तथा बड़ा बाजार थे। बहेलिये शिकारी , बाजे तथा अग्नि के संकेत से शत्रु के आगमन की सूचना देने वाले ग्वाले आदि के वेश में छिपे हुए रक्षक पुरुष बाहर की ओर रखे गए थे।

जिस मार्ग के द्वारा स्कन्धावार पर शत्रु द्वारा आक्रमण की सम्भावना थी उस मार्ग में गहरे कुएं , खाई आदि खोदकर घास-फूंस से ढांप दिए थे। कहीं - कहीं कांटे, लोहे की कीलें ठुके हुए तख्ते बिछा दिए गए थे।

स्कन्धावार पर पहरे के लिए अठारह वर्गों का आयोजन था । कुल सेना मौलभृत छ:वर्गों में विभाजित थी । प्रत्येक के तीन - तीन अधिकारी थे – पदिक , सेनापति और नायक । प्रत्येक सेना के अपने- अपने अधिकारी की अधीनता में तीन -तीन वर्ग होकर छ: प्रकार की सेनाओं के इस प्रकार अठारह वर्ग थे। यही सब बारी -बारी से प्रतिक्षण स्कन्धावार की रक्षा सावधान रहकर करते रहते थे। शत्रु गुप्तचरों की तथा शत्रु की गतिविधि का निरीक्षण करने को गूढ़ पुरुषों की नियुक्ति थी । सैनिकों को लड़ने - झगड़ने , पान -गोष्ठी करने , जुआ आदि खेलने का नितान्त निषेध था । स्कन्धावार के बाहर -भीतर आने- जाने के लिए राजमुद्रा का कड़ा प्रबन्ध था , बिना आज्ञा युद्धभूमि तथा स्कन्धावार से भागने वाले सैनिक को शून्यपाल तुरन्त बन्दी कर ले - ऐसी कठोर राजाज्ञा प्रचारित कर दी गई थी ।

कण्टक -शोधनाध्यक्ष बहुत - से शिल्पी , कर्मकर और उनके प्रधानों के साथ मार्ग की रक्षा , जल -प्रबन्ध , मार्ग-स्थापन, जंगल साफ करने और हिंसक प्राणियों को स्कन्धावार से दूर भगाने में सतत संलग्न था ।

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